Film Censorship Ke Sau Varsh, Part-2
पुस्तक के चौथे अध्याय में फिल्म सेंसरबोर्ड, सिनेमा और दर्शकों का अंतरसंबंध राजनीतिक और न्यायिक दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला गया है । सेंसरबोर्ड द्वारा दिये गए फैसलों को लेकर फ़िल्मकारों का रिवाइजिंग कमेटी, ट्रिब्यूनलतथा न्यायालय तक के सफर को यहाँ रेखांकित किया गया है । कई महत्वपूर्ण न्यायिक केस के अध्ययन के साथ सेंसरबोर्ड, और न्यायालय के फैसलों के बीच अंतद्वंद की पहचान की गयी है । साथ ही सेंसरबोर्ड के फैसलों को राज्य सरकारों द्वारा न मानने के तथ्यों के साथ इस ओर हुई राजनीति पर भी यहाँ प्रकाश डाला गया है । इस अध्याय में आपातकाल के दौरान लगे प्रतिबंध, फिल्म पत्रिकाओं पर लगे प्रतिबंध के साथ ही सेंसरशिप अधिनियमों के विकास और विस्तार को लेकर किए गए फिल्मी पत्रिकाओं के सर्वेक्षण को भी शामिल किया गया हैं । जिनमें दर्शकों के मत भी शामिल हैं । उदारीकरण के दौर के बाद के सिनेमा के बदलते विषयों और दर्शकों/ धार्मिक समूहों द्वारा फिल्मों को लेकर किए गए विरोधो की ऐतिहासिक तथा वर्तमान परिदृश्य को भी यहाँ रेखांकित किया गया है । इस अध्ययन में बोर्ड की चयन प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप के बढ्ने के क्रम को काफी प्रमुखता से उल्लिखित किया गया है, वहीं फिल्मों की प्रमाणन प्रक्रिया में राजनीतिक पार्टियों के हस्तक्षेपों के भी कई प्रसंगों की चर्चा यहाँ शामिल है । पुस्तक के पांचवें अध्याय में 21 वीं सदी की प्रमुख विवादित फिल्मों की समीक्षात्मक विवेचना की गई है । इसमें अवलोकन पद्धति से यह भी देखने की कोशिश की गई है कि क्या जिन दृश्यों संवादोंया कोई भी संदर्भ सेंसरबोर्ड द्वारा इन फिल्मों से हटाये गए है वें किन्हीं पूर्व या बाद की फिल्मों में दिख रहें हैं ? साथ ही सेंसर बोर्ड द्वारा प्रतिबंधित किए जाने वाले सिनेमा या फिर काटे गए दृश्यों के संदर्भ में बोर्ड द्वारा दिये गए नोट का आलोचनात्मक अध्ययन करते हुए यहाँ विवरण दिया गया है । चयनित फिल्मों के अलावा इस अध्याय में 100 फिल्मों की सूची भी तैयार की गयी है जिनमें बोर्ड ने छोटे-बड़े दृश्यों/ संवादो को काटे जाने या चेतावनी जोड़ने की सलाह दी है। पुस्तक के छठे अध्याय में पूर्व के अध्यायों से प्राप्त तथ्यों के आधार पर तथा मौजूदा भारत की सामाजिक आर्थिक राजनैतिक परिस्थिति का अवलोकन और सेंसर विवादों से निकले निष्कर्षो को समाहित करते हुए भारत के संदर्भ में सर्वश्रेष्ठ सेंसरशिप प्रतिदर्श की कल्पना, भविष्य की चुनौतियों को ध्यान में रखकर की गयी है । एक ओर भारत में जहाँ सेल्फ सेंसरशिप की बात चलती है वहीं पूर्व में ही सेल्फ सेंसर के नियमन को लेकर हुए प्रयासों को असफल हो जाने का भी जिक्र मिलता है, ऐसे में भविष्य में इन्टरनेट युग को देखते हुए किस तरह की सेंसरनीति क्रियान्वित होनी चाहिए जिससे पूर्व की तरह विवाद न हो इसकी चर्चा की गयी है । साथ ही नेट्फ़्लिक्स, यूट्यूब जैसे ऑनलाइन मीडिया इंटरर्टेंमेंट बाज़ार का अपने आप में स्थापित होना वर्तमान सेंसरनीति और सिने संस्कृति को किस तरह प्रभावित कर सकती है इस पर भी चर्चा की गई है । पुस्तक के सातवें अध्याय में शोध के उद्देश्यों को उपसंहार में व्यक्त किया गया है । शोध विषय हेतु परिलसखित की गई परिकल्पनाओं को यहाँ जाँचते हुए शोध का निष्कर्ष उल्लिखित किया गया है । चूंकि यह शोध कार्य भविष्य में सेंसरशिप नीति निर्धारण में मददगार हो इसके लिए जरूरी सुझाव भी दिये गए हैं ।